स्वर्ग का द्वार सम्मुख था, पर यह मरीचिका ही तो थी। अब लगता है यह एक अनंत यात्रा है, जिसमें बस पैरों के छाले और बिवाइयां हैं और जिसके इस जन्म में पूर्ण होने की कोई सम्भावना नहीं…
मेघाच्छन्न था आकाश, तृषित धरा थी प्रतीक्षा में, पर बरसीं तो चार बूंदें; तृषा को और भी जगा गयीं, दाह को और भी बढ़ा गयीं। अधर भी अतृप्त ही रहे, कंठ की कौन कहे…
नेह का बीज बोया था, प्रीत का अंकुर उगाया था, प्रेम के तरु को सींचा था। चाहनाओं की बेल चढ़ने को थी, पर… एक सुबह देखता हूँ कि रात भर मेह का जोर था, ओलों की झंझा थी…. प्रेम तरु सर्द हो चला था…. और चाहनाओं की बेल कीच में पड़ी थी…विकल…उपेक्षित….
मन का पंछी बेसाख्ता उड़ चला था और कितने ही आसमानों के पार जा पहुंचा था… कि अब उस आकाश कुसुम को पाये बिना लौटेगा नहीं… लेकिन वह तो आकाश कुसुम ही था न… वह स्वर्ग केे देवताओं को ही प्राप्य है, भूमि के मर्त्य मानव को उसकी चेष्टा का अधिकार नहीं…
सितार के तारों को साध रहा था कि इस बार कोई स्वर्गिक संगीत रच दूंगा… लेकिन ये पार्थिव साधन उस अपार्थिव लय को साध भी सकते हैं क्या भला… सितार के टूटे हुए तार का भग्न स्वर अब भी रोम-रोम में गूंजता है और हृदय को तार-तार करता है…
स्वप्न संजोया था कि उसी एक राग के अनुराग में तन्मय हो रहूँगा और जीवन क्षण भर में बीत जाएगा… कहां जानता था कि जागते ही सब कुछ यूं रीत जाएगा… और मेरे हिस्से में होगा केवल एक दग्ध हृदय… एक आर्त स्वर… एक कातर पुकार… एक करुण क्रंदन… एक अकथनीय वेदना!
इस करुणा कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में, वेदना असीम गरजती?*
* जयशंकर प्रसाद जी के ‘आंसू’ काव्य की प्रारंभिक पंक्तियाँ |
Quite a deep one. You have started writing like a pro. Great!
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धन्यवाद शिल्पा!🙏
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बहुत बढ़िया विकास जी
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धन्यवाद आनंद जी! कृपया ब्लॉग के अन्य पोस्ट भी देखें।🙏
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Vikas Babu bahut badiya.
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धन्यवाद मनीष जी!🙏
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बहुत बढ़िया विकास जी!
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धन्यवाद भइया !🙏
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हृदयस्पर्शी ..🙏
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धन्यवाद शिल्पी! 🙏
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